हर सभ्यता और संस्कृति किसी मूल चीज पर निर्भर करती है । उदाहरणस्वरूप, वर्तमान युग की आधुनिक संस्कृति प्रौद्योगिकी एवं सूचना पर निर्भर करती है । वैदिक काल में यह निर्भरता सत् के सिद्धान्त पर थी । सत् सम्बन्धी विचारधारा लोगों के मन में ऐसी गहरी बैठी हुई थी कि घर-व्यवसाय में भी सात्त्विकता की अभिव्यक्ति पर ही बल दिया जाता था ।
वैदिक संस्कृति दृष्टिकोण-आधारित संस्कृति थी, जिसका आधार एक विशेष प्रकार का मानसिक एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण था । आज के युग में मनुष्यों के सारे प्रयास लाभ-हानि के सिद्धान्त पर काम करते हैं । लोग कुछ करते समय कार्य की गुणवत्ता की अपेक्षा यह सोचते हैं कि इससे उन्हें कितना आर्थिक लाभ होगा । वैदिक काल में लोगों का ध्यान सद्गुणों के विकास पर होता था जिससे वे आगे चलकर विद्वान्, साधक या सिद्ध के रूप में जाने जाते थे ।
उनके विचार से दिव्यता के साम्राज्य की रक्षा चार रक्षकगण कर रहे हैं, जो तब तक किसी को उस दिव्य साम्राज्य में आने की अनुमति नहीं देते, जब तक उन चारों से या किसी एक से भी मित्रता नहीं कर ली जाती । ये रक्षक हैं – शांति, आत्मविचार, संतोष और सत्संग । साधक अपने व्यक्तित्व के अनुकूल किसी एक रक्षक से मित्रता करता है और जैसे-जैसे उस गुण को अपने जीवन में विकसित करता है तो उसका व्यवहार और मानसिकता दोनों बदलने लगते हैं ।
वैदिक जीवनशैली को कई भागों में विभाजित किया जा सकता है । पहला अंश व्यक्ति स्वयं है जो अपने विचारों को उत्तम तरीके से समाज में अभिव्यक्त करने का प्रयास करता है । व्यक्ति को सर्वप्रथम समाज और संसार के तौर-तरीकों के अनुसार प्रशिक्षित करना होता है और सकारात्मक संस्कारों से युक्त करना होता है ताकि घर और समाज में शांति बनी रहे । व्यक्ति की शिक्षा प्राथमिक विद्यालय से शुरू होकर विश्वविद्यालय में जाकर समाप्त होती है । शिक्षा व्यक्ति का मुख्य लक्ष्य होता है, साथ ही वह उन संस्कारों को भी आत्मसात् करते जाता है जो उसे परिवार, संस्कृति, धर्म एवं समाज से प्राप्त होते हैं ।
संस्कार मनुष्य के मन की ग्रहणशीलता को दर्शाते हैं । संस्कारों को सीखा नहीं जा सकता, संस्कार प्राकृतिक रूप से अपने स्वभाव में आत्मसात् किए जाते हैं । विद्या को हम सीखते हैं, उसे प्राकृतिक रूप से आत्मसात् नहीं करते । वैदिक संस्कृति में व्यक्ति का विद्या-अध्ययन और संस्कार-ग्रहण का प्रयास बना रहता था ।
वैदिक परम्परा के अनुसार मनुष्य के जीवन काल में सोलह संस्कार आते हैं, जो जीवन के हर नए पड़ाव के शुभारम्भ के द्योतक होते हैं । संस्कारों की शुरुआत व्यक्ति के जन्म से पहले ही हो जाती है । प्रत्येक संस्कार जीवन एवं अध्ययन के एक नए क्षेत्र में प्रवेश का द्योतक होता है । ब्रह्मचर्य आश्रम में व्यक्ति का मुख्य ध्येय विद्या और संस्कारों का ग्रहण होता है । उसके बाद व्यक्ति गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है जो जीवन में जिम्मेदारी और भागीदारी का समय होता है । इस आश्रम में पूर्व में सीखी गई विद्या का प्रयोग कर व्यक्ति आर्थिक रूप से सम्पन्न बनता है ताकि वह अपने परिवार की जिम्मेदारियों को पूरा कर सके । व्यक्ति का व्यवसाय उसके सामाजिक एवं आर्थिक दायित्व को दर्शाता है, और अपने हुनर एवं प्रतिभा का सर्वोत्तम ढंग से उपयोग करते हुए वह अपने जीवन का निर्वाह करता है और साथ ही वंश-वृद्धि करता है । इस प्रकार गृहस्थ आश्रम में व्यक्ति परिवार, समाज और संसार के साथ अपने कार्यकलापों में भागीदारी बढ़ाता है, और ब्रह्मचर्य आश्रम के विद्यार्थी की अपेक्षा अधिक दायित्व और परिपक्वता का परिचय देता है ।
ये दोनों सबसे महत्त्वपूर्ण आश्रम हैं । इसके बाद आता है वानप्रस्थ आश्रम जिसमें एक तरह से गृहस्थ आश्रम के ही सिद्धान्त जारी रहते हैं, अन्तर केवल इतना होता है कि व्यक्ति की पारिवारिक जिम्मेदारियाँ और सामाजिक भागीदारियाँ या तो कम हो जाती हैं या बदल जाती हैं । पारिवारिक जिम्मेदारियों को नई पीढ़ी को सौंप दिया जाता है । यही प्रक्रिया संन्यास आश्रम में जारी रहती है । त्याग, एकान्त, तपस्या और साधना निस्संदेह महत्त्वपूर्ण होते हैं, लेकिन जीवनशैली के सन्दर्भ में संन्यास आश्रम गृहस्थ जीवनशैली का ही विस्तार था ।
वैदिक काल में साधुगण गृहस्थ होते थे, उन्हें ॠषि और मुनि कहते थे । वे ऐसे गृहस्थ होते थे जो गुरुकुल चलाते थे जहाँ बच्चे आकर विद्या ग्रहण करते थे और साथ ही अन्य प्रतिभाओं में भी दक्ष होते थे । तब भी वे ॠषि-मुनि त्यागी ही कहलाते थे । वे सामाजिक गृहस्थ न होकर त्यागी गृहस्थ होते थे । ये ॠषि-मुनि एवं इनके गुरुकुल लोगों तक विचारधाराएँ, शिक्षा, प्रतिभाएँ और संस्कार पहुँचाने के माध्यम बने । ॠषि-मुनि सामाजिक दृष्टि से दक्ष और आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत होते थे । वे उस समय के वैज्ञानिक, आचार्य और ज्ञान के भंडार हुआ करते थे ।
गुरुकुल में ॠषि अपने विद्यार्थियों के लिए ऐसी दिनचर्या बनाते थे, जिसके अंतर्गत उनके स्वास्थ्य, आहार, निद्रा तथा अन्य गतिविधियों का समय निर्धारित रहता था । शारीरिक स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दिया जाता था और प्रत्येक गुरुकुल में शारीरिक प्रशिक्षण प्रतिदिन दिया जाता था । शारीरिक प्रशिक्षण के अंतर्गत योग और तरह-तरह के युद्ध-कौशलों को सिखाया जाता था । ॠषि अपने विद्यार्थियों को वाणिज्य, उद्योग, राजनीति, प्रबंधन जैसी अनेक विद्याओं का प्रशिक्षण देते थे जिससे वे अपने जीवन में आनेवाले संघर्षों और कठिनाइयों का सामना अच्छी तरह कर सकें ।
गुरुकुल में अमीर और गरीब का कोई भेद नहीं होता था । राजा हो या रंक, उनके बेटे एक साथ शिक्षा ग्रहण करते थे, एक ही कमरे में सोते थे, एक ही प्रकार का भोजन खाते थे, और एक ही प्रकार का काम करते थे । कहने का तात्पर्य यह कि गुरुकुल में सामाजिक ऊँच-नीच का प्रवेश नहीं था, वह सभी के लिए खुला था । गुरुकुल का प्रशिक्षण सिर्फ पुस्तकों तक ही सीमित नहीं था, बल्कि यह व्यावहारिकता और वैज्ञानिकता की कसौटी पर भी खरा था । प्रत्येक गुरुकुल किसी एक विद्या या विषय में श्रेष्ठ होता था । कुछ गुरुकुल कृषि क्षेत्र में उत्तम थे, वे वर्तमान युग के कृषि विश्वविद्यालय जैसे थे । किसी एक विषय में निष्णात होने की यह परम्परा आज भी मेडिकल कॉलेजों, कृषि विश्वविद्यालयों, प्रौद्योगिक महाविद्यालयों जैसे संस्थानों में देखी जा सकती है ।
जहाँ सुश्रुत ॠषि थे वह गुरुकुल आयुर्वेद महाविद्यालय जैसा था, जहाँ भरद्वाज ॠषि थे वह औषधि अनुसंधान केन्द्र या आयुर्वेदशाला जैसा था । प्रत्येक ॠषि किसी एक विद्या में सिद्ध हुए, जिससे विद्यार्थियों के लिए सामान्य शिक्षा के साथ-साथ विशेष शिक्षा प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त हुआ ।
वैदिक संस्कृति की एक मुख्य विचार-धारा यह भी है कि व्यक्तिविशेष का प्रकृति के साथ घनिष्ठ संबंध है । व्यक्ति प्रकृति से अलग नहीं है, बल्कि इसका अभिन्न अंग है । प्रकृति सिर्फ उपभोग की वस्तु नहीं, बल्कि एक सम्माननीय तत्त्व है । इस सिद्धान्त के अनुसार नदी, पर्वत, वृक्ष आदि चीजें जड़ तत्त्व न रहकर देवी-देवता स्वरूप हो गए । प्रकृति के साथ एक गहन संबंध जोड़ना और उसे जड़ वस्तु के रूप में न देखकर दिव्य सत्ता के रूप में मानना वैदिक युग का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त था ।/p>
वैदिक सभ्यता के लोगों ने यह अनुभव किया कि यह सारी सृष्टि, यह मनुष्य शरीर, सम्पूर्ण प्रकृति, बृहत् ब्रह्माण्ड – ये सभी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश, इन पाँच तत्त्वों से बने हैं । इन तत्त्वों के अलग-अलग अनुपात में संयोजन एवं परिवर्तन के कारण ही अलग-अलग वस्तुओं का निर्माण होता है । कुछ संयोगों से ग्रह-उपग्रह बनते हैं, कुछ से मनुष्य, पशु-पक्षी आदि जीव-जन्तु बनते हैं । ये सभी उन पाँच तत्त्वों के संयोजन के फलस्वरूप ही उत्पन्न होते हैं जिनका हम अपनी इन्द्रियों के माध्यम से अनुभव करते हैं । हमें इन पाँचों तत्त्वों का संरक्षण, संवर्धन और संपोषण करना है, तभी हमारा जीवन कायम रह पाएगा ।
इन पाँच तत्त्वों के प्रति आदर और सम्मान व्यक्त करना हि प्रकृति-पूजा का आधार बना, और प्रकृति से संवाद स्थापित करने का माध्यम बना मंत्र । लोगों ने अनुभव किया कि वृक्षों, पशु-पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों आदि से मंत्रों के द्वारा विचारों का आदान-प्रदान हो सकता है । यह संवाद शब्दों का आदान-प्रदान न होकर मंत्रों के स्पंदनों पर आधारित था । कालांतर में मंत्र ही प्रकृति की आराधना करने के साधन बने ।
यह विचारधारा आज भी जीवित है । साठ के दशक में स्कॉटलैण्ड में एक प्रयोग किया गया जिसे फाइंडहॉर्न प्रयोग कहा जाता है । कुछ लोगों ने मिलकर एक बड़े खेत में खेती शुरू की । इसका उद्देश्य मुनाफा कमाना नहीं था । वे लोग उन पेड़-पौधों से, उस स्थान के जल आदि तत्त्वों से बातचीत करते थे, और उन्होंने पाया कि इससे उन चीजों के प्राण जागृत हो गए । वे पेड़-पौधों की अंतरात्मा से संवाद कर सकते थे । उन पेड़-पौधों से जो फल-फूल-सब्जी निकले वे बाजार में पाए जाने वालों से कहीं ज्यादा बड़े, स्वस्थ, पौष्टिक और स्वादिष्ट थे ।
तत्त्वों एवं इनके विभिन्न स्वरूपों से संवाद स्थापित करना, यह एक वैदिक अवधारणा है । आजकल वैज्ञानिक लोग स्पन्दनों के प्रभाव पर शोध कर रहे हैं । पानी के क्रिस्टलों पर इसका प्रयोग शुरू हो चुका है । जब पानी के किसी गंदले क्रिस्टल के साथ सकारात्मक बातचीत की जाती है तो वह अधिक बड़ा और चमकीला हो जाता है, परन्तु उसके साथ अगर नकारात्मक बातें की जाती हैं तो उस पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । पानी तो जड़ पदार्थ है, न तो उसमें चेतना है और न ही संवेदनशीलता, फिर भी वह इन शब्दों पर प्रतिक्रिया करता है ।
वैदिक काल में दिन की शुरुआत विशेष मंत्रों से होती थी जिन्हें जागरण मंत्र कहते हैं । अभी भी दक्षिण भारत के मन्दिरों में प्रात:काल देवताओं को जगाने के लिए जागरण मंत्रों का उच्चारण किया जाता है । सबेरे के समय मंत्रों के माध्यम से सभी को सम्मान दिया जाता था । सम्मान देने की यह परम्परा वैदिक कालीन लोगों के व्यवहार में इस तरह जड़ जमा चुकी थी कि पशु-पक्षियों की भी देखभाल की जाती थी । लोग घर से बाहर चार रोटियाँ लेकर निकलते और किसी गाय को खिला देते । अभी भी भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गाँववाले गाय, कुत्ता, बकरी, मुर्गी आदि को भोजन देते हैं ।
वैदिक सभ्यता में पूरा दिन इस सिद्धान्त पर आधारित था कि सब ओर दिव्यता व्याप्त है । लोग चाँद-सूरज में, पशु-पक्षियों में, प्रत्येक मनुष्य में दिव्यता का अनुभव करते थे । उस समय धर्म विभिन्न सम्प्रदायों में विभक्त नहीं था । आज धर्म शैव, वैष्णव, शाक्त आदि सम्प्रदायों में बँटा है, और इन सम्प्रदायों की आगे अनेक शाखाएँ-प्रशाखाएँ हो सकती हैं । वैदिक काल में केवल एक परम सत्ता, ब्रह्म को माना जाता था जो अन्य सभी देवी-देवताओं और प्रकृति पर नियंत्रण रखते थे । देवताओं की 33 कोटियाँ हैं । संस्कृत में कोटि का मतलब श्रेणी भी होता है और करोड़ भी । जब अंग्रेज भारत आए तो उन्होंने कोटि शब्द का मतलब करोड़ समझा, न कि श्रेणी । भारत में 33 करोड़ देवी-देवता हैं, यह मान्यता बिल्कुल निराधार है । केवल तैंतीस देवता हैं जो इस प्रकार हैं – द्वादश आदित्य, अष्ट वसु, एकादश रुद्र और दो अश्विनीकुमार । ये सभी मिलकर 33 कोटि के देवी-देवता हुए और इनके परे ब्रह्म है ।
द्वादश आदित्य वर्ष के प्रत्येक माह के द्योतक हैं । अष्ट वसु दिन के प्रत्येक प्रहर अर्थात् तीन घंटे की अवधि के द्योतक हैं, दोनों अश्विनी कुमार दिन और रात, जागरण और शयन के द्योतक हैं । एकादश रुद्र पाँच कर्मेन्द्रियों, पाँच ज्ञानेन्द्रियों और मन के द्योतक हैं । वैदिक सभ्यता में जो भी कर्मकाण्ड विकसित हुए वे इन्हीं तैंतीस देवी-देवताओं पर आधारित थे ।
वैदिक काल के बाद पौराणिक काल आता है जिसमें इन्द्र देवताओं के राजा थे और उनके अलावा वरुण, अग्नि, वायु, सोम और कुबेर आदि देवता भी थे । पौराणिक काल में कर्मकाण्डों की अधिकता हो गई, देवी-देवता व्यक्तिगत होते गए और उनके लिए अलग-अलग मन्दिरों का निर्माण होने लगा । भक्तजन अपने-अपने इष्ट देवी-देवताओं को सर्वोच्च मानकर उनका महिमामण्डन करने लगे ।
वैदिक युग में लोगों की समझ थी कि सब कुछ प्रकृति का ही अंग है । मनुष्य का जीवन समस्त सृष्टि से जुड़ा हुआ है । यूनिफाइड फील्ड का सिद्धान्त वास्तव में वैदिक सिद्धान्त है । वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रत्येक वस्तु एक-दूसरे से सम्बन्धित है और अपने जीवन के लिए एक-दूसरे पर निर्भर है । उदाहरण के लिए मनुष्यों का जीवन मधुमक्खियों पर निर्भर है, उनके बिना मानव का अस्तित्व संकट में पड़ सकता है । हर प्राणी का जीवन अन्य प्राणियों पर आश्रित है । इसलिए वैदिक सभ्यता में जीवन को हमेशा बहुमूल्य माना जाता रहा । मुख्य प्रश्न यही था कि हम किस प्रकार जीवन को संरक्षित और संवर्धित कर सकते हैं, और एक ऐसी जीवनशैली और दिनचर्या विकसित की गई जिससे हर व्यक्ति सर्वश्रेष्ठ जीवन जी सके ।