जीवित संन्यास दृष्टि सत्संग


 


वैदिक प्रथाएँ एवं परम्पराएँ

आजकल लोगों का अधिकांश समय मोबाइल फोन और इंटरनेट के उपयोग में ही गुजर जाता है, जबकि वैदिक काल में दिन मंत्रों के साथ बीता करता था । सुबह जागने से लेकर रात में सोने तक लोग मंत्रों की ध्वनियों से घिरे रहते थे । सुबह उठते ही इन्द्रियों का पहला व्यापार होता था नेत्रों से हथेलियों को देखना, और इस समय लोग एक मंत्र का उच्चारण करते थे –

कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती  ।
करमूले तु गोविन्द: प्रभाते करदर्शनम्  ॥

अर्थात् लक्ष्मी हाथों की अंगुलियों में निवास करती हैं, सरस्वती हथेली के बीच में और गोविन्द हथेली के मूल भाग में, अत: प्रात:काल सर्वप्रथम अपने हाथों का दर्शन करना चाहिए ।

उसके बाद शौच, स्नान आदि करके और नाश्ता करने से पहले गायत्री मंत्र का पाठ किया जाता था । साथ ही बहुत-से घर-परिवारों में नाश्ते के पहले घर के बड़े-बूढ़ों द्वारा मंत्रों के साथ अग्निहोत्र या हवन जैसे लघु कर्मकाण्ड भी किए जाते थे ।

नाश्ते के बाद बच्चे पाठशाला जाते थे, जहाँ वे सब कुछ संस्कृत में ही सीखते थे, मंत्र जप करते थे, सुबह, दोपहर और शाम को संध्या करते थे । इसका तात्पर्य यह कि वे दिन में तीन बार गायत्री मंत्र का पाठ करते थे । वैदिक सभ्यता की दिनचर्या सुबह से लेकर रात तक मंत्रों से परिपूर्ण थी । उस समय लोगों का यही मुख्य उद्देश्य था कि मंत्रों का प्रयोग कैसे किया जाए ।

प्राकृतिक चर्या

वैदिक काल में जीवन सूर्य की गति अनुसार संचालित होता था । शरीर को पोषण देने वाले सभी भोज्य पदार्थों को सूर्य के प्रकाश के समय में ही पकाया जाता था । नाश्ता सूर्योदय के पश्चात् होता और शाम का भोजन सूर्यास्त से पहले । सूर्यास्त के पश्चात् एवं सूर्योदय से पहले कुछ भी ग्रहण नहीं किया जाता था क्योंकि यह व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता ।

भारत में अभी हाल तक यह मान्यता थी कि सूर्यास्त के पश्चात् कुछ भी खाना नहीं चाहिए । विज्ञान की दृष्टि से यह मान्यता साबित हो चुकी है, और यह देखा गया है कि शरीर की जैविक क्रियाओं की गति प्रकाश से प्रभावित होती है । प्रकाश के अभाव में यह गति मंद पड़ जाती है और प्रकाश की उपस्थिति में सब कुछ सक्रिय हो जाता है । सूर्य के प्रकाश की अवधि में भोजन ग्रहण करने पर सभी अंग सक्रिय रहते हैं और वे भोजन को पचाकर शरीर को पोषित करने में सक्षम रहते हैं ।

रसोईघर ऐसा स्थान होता था जिसे मंदिर या पूजा-स्थान के जैसे अत्यन्त सम्मान दिया जाता था । सभी चीजें साफ-सुथरी होती थीं, वहाँ जूते-चप्पल पहनकर जाने की अनुमति नहीं थी । यदि कोई रसोईघर में प्रवेश करता तो पहले उसे अपने हाथ-पैर धोने पड़ते थे । रसोईघर पूरे घर का सबसे साफ और पवित्र स्थान होता था । यह दर्शाता है कि वैदिककालीन समाज एक नियमबद्ध, अनुशासित समाज था, जहाँ भोजन को जीवन के एक महत्त्वपूर्ण अंग के रूप में उच्च स्थान प्राप्त था और भोजन के सम्मानजनक प्रयोग की विशेष विधि भी थी । यहाँ तक कि पुराने घरों में अब भी रसोईघर में आला होती है, जहाँ अन्नपूर्णा, लक्ष्मी या अन्य किसी देवी का चित्र स्थापित रहता है । हर रोज सुबह अग्नि प्रज्ज्वलित करने से पहले देवी या आला की पूजा होती है ।

निद्रा

निद्रा की शैली वैदिक युगीय जीवन में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थी । वैदिक साहित्य में ही सर्वप्रथम व्यक्ति के लिए आवश्यक निद्रा की अवधि का वर्णन किया गया है । वैज्ञानिक आज विभिन्न आयु वर्गों, जैसे बच्चों, युवाओं, वयस्कों, वृद्धों आदि के लिए आवश्यक निद्रा अवधि की चर्चा करते हैं, वैसे ही वैदिक साहित्य में भी निद्रा के समय का वर्णन किया गया है जहाँ प्रत्येक वर्ग के लोगों के लिए निद्रा अवधि का निर्देश दिया गया है । निद्रा के लिए आवश्यक घंटों का निर्णय इस आधार पर किया गया था कि रात का समय और निद्रा, प्रकृति और शरीर में संतुलन का निर्माण करते हैं ।

जब व्यक्ति थककर चूर हो जाता है तब निद्रा की अवधि में शरीर और पेशियाँ आराम की अवस्था में आती हैं और दिनभर की बेचैनी किनारे चली जाती है । इसी प्रकार रात के समय सभी प्राकृतिक गतिविधियाँ शांत हो जाती हैं और सब कुछ निष्क्रियता की अवस्था में आ जाता है । हाल तक भारत में परम्परा थी कि सूर्यास्त के बाद पेड़-पौधों को छूना नहीं है । पौधे सूर्यास्त के बाद सोते हैं, यदि उन्हें स्पर्श किया जाए तो वे जग जाएँगे ।

तुलसी

सभी घरों में तुलसी होती थी । तुलसी एक औषधीय पौधा है । घर में जहाँ भी तुलसी होती है, वहाँ की हवा और वातावरण शुद्ध हो जाता है, क्योंकि तुलसी में कीटाणु और रोगाणु नाशक गुण होता है, तथा यह प्रदूषण को नष्ट करके वातावरण को शुद्ध करती है । इसलिए तुलसी को शुद्धता का प्रतीक माना जाता है । घरों में तुलसी का स्थान सबसे साफ-सुथरा और सुसज्जित स्थान होता था । प्रत्येक सप्ताह गाय के ताजे गोबर से तुलसी के पौधे के चारों और लिपाई होती थी और सुंदर रंगोली से सजाया जाता था । चर्म रोग, सर्दी-जुकाम आदि रोगों के उपचार के लिए तुलसी का उपयोग किया जाता था । तुलसी घर के लिए औषधियों की निधि थी और यह सभी छोटी-बड़ी व्याधियों के उपचार के लिए प्रयोग में लायी जाती थी ।

भोजन

वैदिक घरों में परिवार के सभी सदस्यों को भोजन के समय अच्छे विचारों से युक्त होने को कहा जाता था क्योंकि विचार भोजन और पानी को प्रभावित करते हैं । प्राचीन भारतीय परम्परा में यह प्रबल मान्यता थी कि भोजन और पानी अपने चारों ओर के लोगों की ऊर्जा को ग्रहण करते हैं । भोजन के बीच में यदि कोई नया व्यक्ति आता था तो उसे ताजा पानी दिया जाता था, जो अन्य व्यक्तियों और उनकी ध्वनियों के संपर्क में नहीं आया था । यह विश्वास था कि सब कुछ ऊर्जा है, भोजन तथा पानी भी, इसलिए कोई भी विचार या शब्द भोजन को प्रभावित कर सकता है ।

एक अन्य मान्यता थी कि रसोईघर में काम करने वाले लोगों को प्रसन्न रहना होता था । यदि वे चिड़चिड़े या क्रोधित होते तो भोजन प्रभावित हो जाता । भोजन तैयार करने की अवधि में आनन्द का वातावरण रहना चाहिए । उस समय या तो कीर्तन करना चाहिए या मंत्रपाठ या फिर मौन रहना चाहिए । भोजन ग्रहण करने की अवधि में सारी सजगता भोजन पर होती थी, उसे हड़बड़ी में निगलकर नहीं, बल्कि धीरे-धीरे चबाकर खाया जाता था । लोगों को निर्देश था कि जब तक ठोस भोजन का अंतिम टुकड़ा तरल में नहीं बदल जाता, तब तक चबाना है । जबकि आज लोगों का ध्यान फास्ट-फूड और जल्दी-जल्दी खाने पर है ।

भोजन तैयार हो जाने के बाद उसका एक भाग सभी प्रकार के प्राणियों के लिए रख दिया जाता था । मुठ्ठी भर भोजन बगीचे में चींटियों और कीट-पतंगों के लिए छोड़ दिया जाता था, मुठ्ठी भर घर की अटारी पर चिड़ियों के लिए, कुछ रोटियाँ गाय को खिलाने के लिए ले जायी जाती थीं । भोजन कक्ष में एक स्थान भोजन के समय अचानक आने वाले अज्ञात अतिथि के लिए सदैव रिक्त रहता था । इस तरह भोजन को जीवनशैली का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता था, क्योंकि वह पोषण और जीवन देता है ।

आजकल लोग पोषण को नहीं, बल्कि स्वाद को देख रहे हैं और स्वाद के कारण वे अपनी खाने की आदतों को तेजी से बदल देते हैं । वे एक ही प्रकार के भोजन को सप्ताह में दो या तीन बार नहीं खाते हैं । पहले के समय में एक ही प्रकार के भोजन को कम-से-कम एक महीने के लिए उपयोग में लाया जाता था । इस तरह शरीर आवश्यक पोषक तत्त्वों को प्राप्त कर पाता और कमियों की पूर्ति कर पाता था । आज शरीर को पोषक तत्त्वों की कमी को पूरा करने का अवसर नहीं मिल पाता और इसलिए विटामिन, खनिज आदि कृत्रिम पोषक तत्त्वों पर निर्भरता इतनी बढ़ गई है ।

भोजन संबंधी एक अन्य नियम था कि पेट का पचास प्रतिशत भाग ठोस पदार्थ से, पच्चीस प्रतिशत द्रव्य पदार्थ से तथा पच्चीस प्रतिशत वायु से भरा होना चाहिए । भोजन के इस सामान्य नियम का पालन करके उस समय के लोग जो भी खाते, उसे बड़ी आसानी से पचा लेते थे । इससे प्राणशक्ति, ऊर्जा, बल और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती तथा जीवन में स्वाभाविक रूप से संयम आता था ।

यदि संभव हो और यदि आपका परिवार और समाज इसे स्वीकार कर सके तो अपने भोजन के समय को परिवर्तित कीजिए । यह केवल आदत की बात है । यदि आप अचानक नहीं, बल्कि धीरे-धीरे समय परिवर्तन करते हुए अपने भोजन के समय को सूर्योदय एवं सूर्यास्त के बीच ला पाएँ तो आपको अपने स्वास्थ्य में आश्चर्यजनक सुधार दिखलाई पड़ेगा । उस परिवर्तन के साथ आप हल्का अनुभव करेंगे, अच्छी नींद आएगी और आपके पास अधिक समय होगा । यह परिवर्तन आपको विश्वास और साहस के साथ कठिनाइयों का सामना करने में समर्थ बनाएगा तथा आप बेहतर शारीरिक स्वास्थ्य एवं ऊर्जा अनुभव करेंगे ।

मंत्र

वैदिक काल में मंत्रों का प्रयोग लोगों की दिनचर्या का एक अभिन्न अंग था । मंत्रोच्चार सभी की जीवनशैली में सम्मिलित किया जा सकता है । प्रारम्भ में तीन समयों को निर्देशित किया गया है जब मंत्रोच्चार सबसे लाभदायक होता है, लेकिन वास्तव में हम किसी भी क्षण अपने गुरु मंत्र या ॐ जैसे किसी सार्वभौमिक मंत्र से जुड़ सकते हैं ।

तीन मंत्र साधना

‘कराग्रे वसते लक्ष्मी’ मंत्र के स्थान पर प्रात:काल जागते ही तीन विशेष संकल्पों के साथ मंत्र पाठ किया जा सकता है । जब व्यक्ति जागता है, उस समय मन पूर्णतया जागृत नहीं रहता । उस अर्द्धजागृत अवस्था में मन की अवचेतन अवस्था में सीधे प्रवेश किया जा सकता है । अवचेतन मन वह भाग है मन का जो वातावरण से अनेकों तनावों और सूचनाओं को ग्रहण करता है, साथ ही उनके प्रति व्यक्ति की प्रतिक्रियाओं को भी संचित करता है । यह क्षेत्र प्रतिक्रियाओं और प्रभावों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होता है ।

यदि व्यक्ति अवचेतन मन में कोई विचार लाता है और उस कार्य को पूर्ण करने का निर्णय लेता है तो वह विचार नियत कार्य को पूर्ण करने के लिए सामर्थ्य, प्रेरणा और संकल्प को प्रोत्साहित करेगा । यदि अवचेतन मन में एक विचार का रोपण कर दिया जाए कि ‘मैं प्रसन्न हूँ’ तब अत्यन्त कष्टप्रद क्षणों में भी व्यक्ति प्रसन्न ही रहेगा, क्योंकि उसका अवचेतन मन उसे प्रसन्न रहने के लिए कह रहा है । चेतन मन कहता है, ‘प्रसन्न होने का कोई भी कारण नहीं है’ लेकिन अवचेतन मन व्यक्ति को प्रसन्नता अनुभव कराता है । योग में इसे क्षेत्र कहा जाता है – आंतरिक प्रत्ययों, संस्कारों, कर्मों और आदतों का क्षेत्र ।

आधुनिक जीवनशैली चेतन मन को शिक्षित करती है, जबकि वैदिक जीवनशैली अवचेतन मन को प्रशिक्षित करती थी और अवचेतन मन का यह प्रशिक्षण मंत्रों के साथ शुरू होता था । उन लोगों के लिए मंत्र का धार्मिक अर्थ एवं महत्त्व था । वे अपने शरीर के विभिन्न स्थानों में विभिन्न मंत्रों के साथ देवताओं का न्यास, उनकी स्थापना करते थे । इस न्यास के स्थान पर मंत्रों का उपयोग स्वास्थ्य, सद्बुद्धि और दु:खमुक्ति के संकल्पों के रोपण के लिए किया जा सकता है । स्वास्थ्य के लिए महामृत्युंजय मंत्र, सद्बुद्धि के लिए गायत्री मंत्र और दुर्गति-निवृत्ति के लिए दुर्गाजी के बत्तीस नामों के पाठ से दिन की शुरुआत एक सकारात्मक ढंग से होती है ।

शान्ति मंत्र

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति: वनस्पतय: शान्तिर्विश्वेदेवा: शान्तिर्ब्रह्मशान्ति: सर्वं शान्ति: शान्तिरेवशान्ति: सामाशान्तिरेधि  ॥ शान्ति: शान्ति: सुशान्तिर्भवतु सकलारिष्टसुशान्तिर्भवतु सर्वे ग्रहा: सुशान्तिर्भवतु  ॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:  ॥

– सामवेद का शांति मंत्र

 

इस मंत्र का पाठ घर से बाहर निकलते समय किया जाता है । यह शांति के प्रति एक दृढ़ संकल्प और सम्बन्ध को दर्शाता है, वह शान्ति जो स्वर्ग, अंतरिक्ष, पृथ्वी, औषधियों, सब जगह व्याप्त है । इस मंत्र के साथ व्यक्ति दिनभर के कार्यों को शुरू करने से पहले शांति और सामंजस्य की सजगता विकसित करता है । सर्वप्रथम व्यक्ति शान्ति की भावना से जुड़ता है, फिर वह दिनभर के कार्यों और दायित्वों के लिए तैयार हो जाता है । आजकल लोग इस सिद्धान्त के विपरीत रहते हैं । जैसे ही वे जागते हैं, उनका पहला सम्बन्ध तनाव से होता है । वे तनाव से हर समय जुड़े रहते हैं, जबकि मंत्रोच्चार युक्त जीवनशैली में व्यक्ति आँखें खोलते समय तीन सकारात्मक संकल्पों से जुड़ता है, और घर छोड़ते समय शान्ति और सामंजस्य के संकल्प से ।

वैदिक काल में घर से निकलने से पहले लोग सभी दिशाओं की ओर उन्मुख होकर प्रार्थना किया करते थे और सफल यात्रा के लिए तिलक या टीका लगाते थे । जब जल पार करना होता था तो दही का टीका लगाते थे, मांगलिक कार्य के समय सिन्दूर या लाल टीका, यदि कठिनाइयों का सामना हो रहा है तो काजल या काला टीका और अध्ययन के समय पीला टीका लगाते थे । प्रत्येक टीका व्यक्ति के जीवन में पालन किए जाने वाले धर्म का परिचायक था ।

टीका चेहरे की सुन्दरता के लिए नहीं था, बल्कि यह व्यक्ति के किसी कार्य विशेष में संलग्न होने को दर्शाता था । विद्यार्थी का पीले चंदन का टीका होता, पति-पत्नी लाल टीका लगाते क्योंकि वे परिवार का प्रशासन-संचालन करते थे, सेवक-सहयोगी सामान्यत: भस्म का सफेद टीका लगाते । यह टीका कार्य और दायित्व के अनुसार बदलता था । कोई अपने कार्य के अनुसार सुबह और शाम को अलग-अलग टीका लगा सकता था ।

टीका व्यक्ति के किसी कार्य में संलग्नता और प्रतिबद्धता का प्रतीक था । इस तरह व्यक्ति की जीवनशैली में सतत् निर्देश प्रदान किया जाता जिससे वह स्वयं को सर्वोत्तम ढंग से अभिव्यक्त कर सके ।

ब्रह्मार्पणम् मंत्र

तीन मंत्र साधना और शांति मंत्र के बाद श्रीमद् भगवद्गीता के मंत्र का पाठ भोजन से पूर्व किया जाता है जो ब्रह्म के सर्वव्यापक रूप का बोध कराता है ।

ॐ ब्रह्मार्पणं ब्रह्महवि: ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्  । ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना  ।।4.24 ।।

साधना मंत्र

चौथा साधना मंत्र है जो गुरु मंत्र या ॐ या सोऽहं जैसा कोई सार्वभौमिक मंत्र हो सकता है ।

संतुलन

यह महत्त्वपूर्ण है कि आराम और अवकाश के साथ-साथ श्रम और सक्रियता का समुचित समावेश रहे । यदि कोई एक घंटे के लिए ध्यान कर रहा है तो प्राणिक संतुलन के लिए, इन्द्रियों को सक्रिय करने के लिए, शरीर और मन में सामंजस्य लाने के लिए उसे तीन घंटे शारीरिक कर्मयोग करना चाहिए ।

ध्यान के अभ्यास से प्राण शक्ति जागृत होकर एकत्र हो जाती है, इसलिए ध्यान के बाद उस प्राण शक्ति का उपयोग शारीरिक क्रिया-कलापों में करना चाहिए । जब भी अत्यधिक शारीरिक क्रिया-कलापों से प्राण शक्ति की कमी अनुभव होती है तब वह ध्यान ही है जो प्राण शक्ति की भरपाई करता है ।

यह संतुलन व्यक्ति की स्वाभाविक अभिव्यक्ति और जीवन का अंग बन जाता है । दिन के 24 घंटे का समय मुहूर्त और काल द्वारा विभाजित किया गया है, जिसमें बताया गया है कि कौन-सा मुहूर्त या काल किस प्रकार के कार्य, विचार या अभिव्यक्ति के लिए अच्छा है । उदाहरण के लिए सबेरे चार से छ: बजे का समय ब्रह्ममुहूर्त के नाम से जाना जाता है । इसी प्रकार रात में 12 से 2 बजे का समय निद्रा काल माना जाता है, वह अवधि जिसमें व्यक्ति सबसे गहरी निद्रा में होता है । इस तरह समय की ऊर्जा और क्रिया-कलापों के अनुसार अलग-अलग अवधियाँ परिभाषित की गई हैं । यदि कोई किसी समय की विशेष ऊर्जा और क्रिया-कलापों के बारे में समझ जाए और अपनी दिनचर्या को उसके अनुसार व्यवस्थित कर ले, तब सफलता सदैव उसके कदम चूमेगी ।

पहले जमाने में केवल समय और शकुन का अवलोकन करके लोग यह जान लेते थे कि वे सफल होंगे या नहीं । श्वास के प्रवाह, जिसे स्वर कहते हैं, को देखकर वे कार्य प्रारम्भ करते समय उसकी सफलता या असफलता के बारे में जान लेते थे । छाया को देखकर जान लेते थे कि वे सफल होंगे या नहीं । उनकी ऐसी उच्च स्तरीय सजगता थी ।

वैदिक जीवनशैली जीने के लिए किसी नये आविष्कार की जरूरत नहीं है । यह उस स्तर की सजगता को विकसित करने का प्रयास है, जो पहले के लोगों में थी पर अब खो गई है । अपने जीवन में मंत्र, भोजन आदि के प्रति सही दृष्टिकोण और प्रकृति से समस्वरित दिनचर्या जैसी कुछ विलुप्त प्रथाओं और परम्पराओं का पुन: समावेश करने पर परिवार और समाज में कल्याण, संतुलन, संतोष और आनन्द आएगा ।

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